फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...
अहंकार नहीं अपनी आत्मा का पोषण कीजिए
June 2, 2021
अहंकार नहीं अपनी आत्मा का पोषण कीजिए…
रामकृष्ण परमहंस एक दिन किसी संत के साथ धर्म, अध्यात्म, जीवन और कर्म पर चर्चा कर रहे थे। चर्चा के दौरान सर्दी का मौसम होने की वजह से संत को ठंड लगने लगी। उन्होंने रामकृष्ण परमहंस से आज्ञा लेकर आसपास से कुछ सुखी लकड़ियाँ इकट्ठी करी और धूनी लगाकर वापस सत्संग में मशगूल हो गए। संतों की चर्चा सुनकर उससे अपने जीवन को बेहतर बनाने के उद्देश्य से एक गरीब व्यक्ति भी वहीं रुक गया और सत्संग सुनने लगा।
रामकृष्ण परमहंस और संत को धूनी की गरमाहट लेता देख इस गरीब व्यक्ति की भी इच्छा हुई कि मैं भी कुछ सुखी लकड़ियाँ एकत्रित कर उसमें आग लगाकर बैठ जाता हूँ। वह भी संतों की चर्चा सुनने के साथ-साथ सुखी लकड़ियाँ एकत्रित करने लगा। कुछ ही देर में उसने सुखी लकड़ियाँ एकत्रित कर उसका ढ़ेर लगा लिया लेकिन अब उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें जलाने के लिए अग्नि कहाँ से लाए? उसने संतों के सामने जलती धूनी से एक जलती हुई लकड़ी लेने का निश्चय किया लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि शायद यह उचित नहीं होगा। वह रुक गया और कुछ देर इसी दुविधा में ठंड में बैठा रहा।
जैसे-जैसे रात्रि नज़दीक आती जा रही थी ठंड भी बढ़ती जा रही थी। कुछ देर बाद उसे लगने लगा कि अगर अब उसने लकड़ियों को नहीं जलाया तो उसके लिए ठंड सहन करना मुश्किल होगा। वह उसी वक्त उठा और संत के द्वारा जलाई गई धूनी में से एक जलती हुई लकड़ी उठा लाया।
संत ने जैसे ही एक सामान्य व्यक्ति को लकड़ी उठाते हुए देखा वे ग़ुस्से में आ गए और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए उसका अपमान करने लगे, उसे मारने लगे। वे चिल्ला चिल्ला कर बोल रहे थे, ‘नीच, अधर्मी तू ना तो पूजा पाठ करता है, ना ही उच्च कुल का नज़र आ रहा है। तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे द्वारा जलाई गई धूनी को हाथ लगाने की। तूने उसे हाथ लगाकर अपवित्र कर दिया।’ संत का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था, वे अनाप-शनाप बोले जा रहे थे।
संत को इस तरह व्यवहार करता देख रामकृष्ण परमहंस मुस्कुराने लगे। कुछ देर बाद जब संत का ध्यान रामकृष्ण परमहंस जी की ओर गया, तो उन्हें मुस्कुराता देख उनका ग़ुस्सा और बढ़ गया। वे वापस परमहंस जी के पास आए और बोले, ‘आप इस घटना को देख इतना प्रसन्न क्यों हो रहे हैं? ये व्यक्ति अपवित्र है, इसने गंदे हाथों से मेरे द्वारा प्रज्ज्वलित अग्नि को छू लिया हैं, तो मेरा ग़ुस्सा होना जायज है। क्या आप मुझसे सहमत नहीं हैं?’
परमहंस जी उसी मुस्कुराहट के साथ बोले, ‘महात्मन, मुझे नहीं पता था कि कोई ग़ैर पूजा-पाठी व्यक्ति अगर किसी चीज़ को छू ले तो वह अपवित्र हो जाती है। आपका व्यवहार और आपकी बात मुझे दुविधा में डाल रही है, अभी थोड़ी देर पहले आप बोल रहे थे कि सभी प्राणियों में परमात्मा का वास है। लेकिन आपका व्यवहार एहसास करा रहा है कि आप इस बात से इत्तफ़ाक़ नहीं रखते हैं, आप स्वयं उस बात को भूल गए है।’
परमहंस जी की बात सुनते ही संत को अपनी गलती का एहसास हो गया, और उन्होंने परमहंस जी से इसका कारण पूछा। परमहंस जी बोले, ‘असल में इसमें आपकी गलती नहीं है, यह व्यवहार आप अपने अंदर मौजूद ‘अहंकार’, जो वास्तव में आपका शत्रु है, उसकी वजह से कर रहे थे।’
जी हाँ दोस्तों, अकसर हमारे साथ भी दैनिक जीवन में ऐसा ही होता है, ईश्वर के आशीर्वाद से हमें ज़रा सी सफलता क्या मिलती है हम हवा में उड़ना शुरू कर देते हैं और लोगों को, रिश्तों को, उनके व्यवहार को तोलना शुरू कर देते हैं। दूर के लोगों को तो छोड़िए कई बार हम यही गलती अपने माता-पिता, भाई, बहन, पति, पत्नी या बच्चों के साथ भी करते हैं। पक्षपात पूर्ण अर्थात् एक ही स्थिति में दो अलग तरह से सोचना या निर्णय लेना, खुद को सर्वश्रेष्ठ और दूसरों को निरा मूर्ख मानना असल में आपको ही परेशानी में डालता है। याद रखिएगा दोस्तों हम सबको ईश्वर ने एक समान बनाया हुआ है, अगर उसने आपको कुछ ज़्यादा दिया है चाहे वह पैसा हो या ज्ञान। उसका महत्व, उसका उद्देश्य समझिए, उसके अहंकार में लोगों का अपमान या उनसे नफ़रत मत कीजिए अन्यथा घमंड आपका सारा ज्ञान खत्म कर देगा इसलिए अपने कर्म, वचन और विचार से अपने अहंकार नहीं अपनी आत्मा का पोषण कीजिए।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
dreamsachieverspune@gmail.com