Sep 5, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, बदलते वक़्त के साथ जैसे-जैसे लोगों की सोच भौतिकवाद और भोगवाद पर आधारित होती जा रही है, वैसे-वैसे मानवीयता आधारित प्राथमिकताएँ पीछे छूटती जा रही है। जो कहीं ना कहीं हमारी संस्कृति, मानवीय मूल्य और इंसानियत को प्रभावित कर रहे हैं, जो किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता है। अपनी बात को मैं आपको एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ।
एक बार मंत्री ने राजा की मदद के लिए एक समझदार, ईमानदार और योग्य सेवक को नियुक्त किया। उस शख़्स की नियुक्ति के कुछ दिनों बाद राजा ने मंत्री से कहा, ‘मंत्री जी, वैसे तो यह आदमी कामकाज और व्यवहार के हिसाब से बहुत अच्छा है पर कहीं ना कहीं इसके रंगरूप का अच्छा ना होना मुझे खटकता है।’ राजा की बात मंत्री जी को अच्छी नहीं लगी, लेकिन फिर भी उन्होंने उस वक़्त चुप रहने का निर्णय लिया।
एक दिन राजा ने सभा के दौरान सेवक से पानी लाने को कहा। सेवक तुरंत वहाँ से गया और सोने के पात्र में पीने का पानी ले आया। राजा ने उस पानी का पहला घूँट लेते ही उसे थूक दिया और सेवक से कहा, ‘इतना गर्म पानी, वह भी गर्मी के इस मौसम में? तुम्हें इतनी भी समझ नहीं है।’ मंत्री ने तुरंत उस सेवक को मिट्टी के पात्र में रखा पानी लाने को कहा। कुछ ही पलों में सेवक ने आज्ञा का पालन करते हुए मिट्टी के पात्र का पानी लाकर राजा को दिया, जिसे पीकर राजा ने अपनी प्यास बुझाई।
इस घटना के तुरंत बाद मंत्री राजा के पास गये और धीरे से उनके कान में बोले, ‘महाराज, बाहर नहीं, भीतर को देखें। सोने का पात्र सुंदर, मूल्यवान और अच्छा होते हुए भी पानी को शीतलता प्रदान करने में सक्षम नहीं है और वहीं मिट्टी के अत्यंत साधारण पात्र में पानी को ठंडा करने की क्षमता है। इसलिए महाराज कोरे रंगरूप के स्थान पर हमें गुणों को देखना चाहिए। बताने की ज़रूरत नहीं है दोस्तों, कि इस घटना ने राजा के नज़रिए को हमेशा के लिए बदल दिया।
ठीक इसी तरह दोस्तों, पैसे या संपत्ति वाला याने भौतिकता या भोगवाद को समर्थन करने वाला सम्मान पाने का अधिकारी हो ज़रूरी नहीं है। इसका लेना-देना तो सीधे-सीधे इंसान के चरित्र से होता है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो दोस्तों, सम्मान, प्रतिष्ठा, यश, श्रद्धा पाने का अधिकार, चरित्र को मिलता है, चेहरे को नहीं। इसीलिए आचार्य चाणक्य ने कहा है, ‘मनुष्य गुणों से उत्तम बनता है, न कि ऊंचे आसन पर बैठने से या पदवी से।’
चलिए मैं आचार्य चाणक्य की बात को आपको एक उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूँ। जैसे ऊंचे महल के शिखर पर बैठ कर भी कौवा, कौवा ही रहता है; गरुड़ नहीं बन जाता। ठीक उसी तरह शारीरिक सौंदर्य किसी को महान नहीं बनाता है और दौलत या भौतिकता और भोगवाद का समर्थक होना इंसान को महान नहीं बनाता है। उसके लिए तो इंसान को ख़ुद को मन की पवित्रता से ख़ुद को निखारना होता है। अर्थात् सौंदर्य, रंग-रूप, नाक-नक्श, चाल-ढाल, रहन-सहन, सोच आदि आपकी सिर्फ़ आपकी शैली की झलक नहीं है। यह तो किसी भी व्यक्ति के मन, विचार, चिंतन और कर्म का आईना है।
जी हाँ दोस्तों, कई लोग बाहर से सुंदर दिखते हैं मगर भीतर से बहुत कुरूप होते हैं। जबकि ऐसे भी लोग हैं जो बाहर से सुंदर नहीं होते मगर उनके भीतर भावों की पवित्रता इतनी ज्यादा होती है कि उनका व्यक्तित्व चुंबकीय बन जाता है। इसीलिए तो सुंदर होने और दिखने में बहुत बड़ा अंतर बताया गया है। ठीक ऐसे ही भौतिक रूप से अमीर होने के मुक़ाबले दिल से अमीर होने को ज़्यादा महत्व वाला बताया गया है। इसलिए दोस्तों, हमेशा याद रखियेगा, हमारा चरित्र ही हमारा सबसे बड़ा गुण है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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