Mar 13, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, चलिए आज के लेख की शुरुआत उपनिषद से ली गई एक बहुत ही शानदार कहानी से करते हैं। देवलोक में स्थित एक फलदार वृक्ष पर दो स्वर्ण पंख वाले पक्षी रहा करते थे। दोनों में से एक पक्षी वृक्ष की सबसे ऊपर वाली शाख़ पर शांत भाव के साथ एकदम स्थिर बैठा हुआ था। ऐसा लग रहा था, मानो वह अपनी ही महिमा या मस्ती में मस्त था। इस पक्षी का वृक्ष पर लगे फलों से कोई लेना-देना ही नहीं था। अर्थात् वह उस वृक्ष पर लगे फलों को खाता ही नहीं था। असल में उसका आनंद, उसका सुख, उसकी ख़ुशी आदि किसी बाहरी वस्तु पर निर्भर नहीं करती है। वह हमेशा इच्छाओं और आवश्यकताओं से परे अपनी गरिमा में परिपूर्ण रहता है।
दूसरा पक्षी, पहले पक्षी के ठीक विपरीत बर्ताव करता था। याने दूसरा पक्षी स्थिर और शांत स्वभाव के विपरीत एकदम चंचल स्वभाव का था। वह कभी वृक्ष की एक डाल पर बैठता, तो कभी दूसरी पर। अर्थात् वही फुदकने में उसका ज़्यादातर समय बीत रहा था। भूख से अतृप्त वह पक्षी कभी एक फल खाता, तो कभी दूसरा। कोई फल उसे मीठा लगता, तो कोई कड़वा। असल में सर्वश्रेष्ठ मीठे फल की आकांक्षा में वह हमेशा अधीर बना रहता था। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अधीरता के कारण स्वादिष्ट और मीठा फल भी उसे क्षणिक आनंद की अनुभूति देता था। अर्थात् उसका सुख या ख़ुशी स्थाई नहीं रहती थी। इसीलिए वह पुनः भूखा हो जाता था।
एक दिन अपनी अधीरता के कारण वह बहुत ही कड़वा फल खा लेता है, और तृष्णाओं से विरक्त होकर ऊपर वाले पक्षी की ओर देखता है और उससे आकर्षित होकर उसकी ओर बढ़ने लगता है। लेकिन सबसे ऊपरी शाख़ पर बैठे स्वर्णिम पक्षी तक पहुँचने के पहले ही सुंदर और पके हुए फलों को देख वह सब कुछ भूल जाता है और सब कुछ भूलकर मीठे फलों को चखने में व्यस्त हो जाता है।
ऐसा कई बार होता है और हर बार अपने चंचल स्वभाव, आकांक्षा और अधीरता के कारण वह बीच में ही कहीं रुक जाता। एक बार मीठे फल की चाह में उसने बहुत ही ज़्यादा कड़वा फल खा लिया, जिसके कारण वह बहुत ही व्याकुल और चिंतित हो गया। जिसके कारण उसे अब उस वृक्ष पर लगे फलों से विरक्ति सी हो गई। अब वह और फल खाने का इच्छुक नहीं था। अब वह फलों के स्वाद से तृप्त हो गया था। इसलिए अब उसका पूरा ध्यान ऊपरी शाख़ पर बैठे पक्षी के पास पहुँचना था। इसलिए वह ऊपरी पक्षी तक पहुँचने के लिये वह सीधे उड़ान भरने लगा। कुछ ही देर में वह ऊपरी शाख़ पर बैठे पक्षी के बिलकुल नज़दीक पहुँच गया।
ऊपरी शाख़ तक पहुँचते ही दूसरे पक्षी पर पहले पक्षी की स्वर्णिम आभा प्रतिबिंबित होने लगती है; जो उसे अपने में पूरी तरह समाहित कर लेती है। अब दूसरे पक्षी का अस्तित्व मिट चुका था। अर्थात् दूसरा वाला पक्षी, पहले पक्षी में पूर्णतया विलीन हो गया था। असल में उसे बोध हो गया था कि वह दूसरा पक्षी कभी था ही नहीं। वह तो ऊपरी शाख़ पर सर्वदा शांत रहने वाला पक्षी ही था।
दोस्तों, उपनिषद की यह कहानी असल में हम सभी की कहानी है। हम सब भी इस दुनिया में आने के बाद माया के जाल में फँसने के पहले ऊपरी शाख़ पर शांत भाव के साथ एकदम स्थिर थे। लेकिन जैसे ही हम माया के संपर्क में आए हम उसके जाल में फँस गए और तब तक किसी ना किसी रूप में फँसे रहे, जब तक हमने अपना ध्यान शाश्वत सत्य की ओर नहीं मोड़ लिया। दोस्तों, कहानी थोड़ी कठिन भाषा में ज़रूर है, लेकिन है जीवन को सही दिशा देने वाली। इसलिए इस पर एक बार विचार ज़रूर कीजिएगा…
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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