Jan 29, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, विनम्रता और आजन्म शिक्षार्थी बने रहना दो ऐसी बातें है जो आपको अहंकार और घमंड से बचाती है। अपनी बात को मैं हमारी अवंतिका नगरी यानी आज के हमारे शहर उज्जैन के गौरव और हमारे देश भारत के सर्वश्रेष्ठ महान संस्कृत कवि और विद्वान कालिदास जी से जुड़े एक क़िस्से से समझाने का प्रयास करता हूँ। लेकिन आगे बढ़ने से पहले मैं आपको याद दिला दूँ कि प्राचीन शास्त्रों और भारतीय पौराणिक कथाओं पर आधारित उनकी अनुकरणीय काव्य कृतियों को पवित्र ग्रंथों के समान ही माना जाता है। वे अपने समय के सबसे विद्वान दार्शनिक के रूप में प्रसिद्ध थे और उन्हें चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में नौवें रत्न के रूप में सम्मानित भी किया गया था। ऐसा भी कहा जाता था कि महान कवि कालिदास को कई अलौकिक अनुभव हुए थे, जो उनके जीवन को मनोहर और प्रेरणादायी बनाता है। चलिए, आज उनके जीवन के एक ऐसे ही क़िस्से से विनम्रता और आजन्म शिक्षार्थी बने रहने के लाभ को समझने का प्रयास करते हैं।
एक बार महाकवि कालिदास भरी दोपहर में तेज गर्मी के बीच जंगल से गुज़र रहे थे। सूरज की तेज गर्मी ने मानो उनकी ऊर्जा की हर बूँद को सोख लिया था, जिसके कारण वे प्यास से व्याकुल थे। हर गुजरते पल के साथ स्थितियाँ उनके लिये गंभीर और असहनीय होती जा रही थी। अचानक ही प्यास से व्याकुल कालिदास जी की नज़र पानी के घड़े के साथ गुजरती एक महिला पर पड़ी। वे तत्काल उनके पास गये और निवेदन करते हुए बोले, ‘माँ, सूरज की तपन से हाल बेहाल है और असहनीय प्यास मेरे गले को काँटों की तरह चुभ रही है। कृपया थोड़ा सा पानी पिला दीजिए, बड़ी कृपा होगी।’ महिला तुरंत बोली, ‘बेटा, मैं तुम्हें जानती नहीं हूँ। पहले कृपया अपना परिचय दो, फिर मैं तुम्हें अवश्य पानी पिला दूँगी।’
प्यास से व्याकुल कवि कालिदास बिना समय व्यर्थ करे तपाक से बोले, ‘आप मुझे पथिक मानें।’ महिला बोली, ‘इस दुनिया में सूर्य और चंद्रमा दो ही पथिक हैं। वे कभी नहीं रुकते, हमेशा गतिमान रहते हैं। सत्य बताओ, तुम इनमें से कौन हो?’ उत्तर सुन कालिदास स्तब्ध थे। उन्होंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘फिर आप मुझे मेहमान समझ लें और पानी पिला दें।’ महिला बोली, ‘तुम मेहमान भी नहीं हो क्योंकि संसार में धन और यौवन, दो ही मेहमान हैं। इन्हें जाने में बिलकुल भी समय नहीं लगता। सत्य बताओ, तुम कौन हो?’ इस गहरे तर्क के आगे कालिदास जी खुदको नि:शब्द महसूस कर रहे थे। एक पल रुककर वे बोले, ‘माँ, मैं सहनशील हूँ। कृपया अब पानी पिला दीजिए।’ महिला बोली, ‘फिर असत्य कहा तुमने। सहनशील तो दो ही हैं। पहली पृथ्वी, जो पापी और पुण्यात्माओं का बोझ सहती है और जो उसकी छाती चीरकर बीज बोता है, उसे अनाज के भंडार देती है। दूसरा पेड़, जो पत्थर मारने पर भी मीठे फल देते हैं। सच बताओ तुम कौन हो?’ महिला के तर्क-वितर्क से परेशान, प्यास से व्याकुल और मूर्च्छा की स्थिति के लगभग पहुँच चुके कालिदास जी झल्लाकर बोले, ‘फिर तो मैं हठी हूँ।’ महिला पुनः असहमत होते हुए बोली, ‘नहीं पुत्र, हठी तो हैं पहला नख और दूसरा केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं।’, सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप?’ अब तक कालिदास जी अपना धैर्य खो चुके थे वे झल्लाते हुए तेज आवाज़ में लगभग चीखते हुए बोले, ‘मैं मूर्ख हूँ।’ महिला मुस्कुराते हुए उन्हें चिढ़ाते हुए बोली, ‘काश!, यह सत्य होता। इस दुनिया में मूर्ख भी दो ही हैं, और तुम उनमें से नहीं हो। पहला वह शासक, जो बिना पर्याप्त योग्यता के लोगों पर शासन करता है। दूसरी वह प्रजा, जो ग़लत निर्णय कर रहे शासक को खुश रखने के लिए उसकी जी-हुज़ूरी करती है।’
कालिदास एक मामूली ज्ञात होने वाली महिला की विद्वत्ता देख हैरान थे। वे ख़ुद को उस महिला के तार्किक शब्दों के आगे परास्त महसूस कर रहे थे। वे उस वृद्धा के पैरों में गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाते हुए बोले, ‘हे माँ, मैं बड़ा अज्ञानी था जो यह समझ बैठा था कि मैं स्वयं को पहचानता हूँ। आपसे हुई वार्ता ने मेरा दृष्टिकोण बदल दिया है और मैं बहुत लज्जित हूँ। कृपया इस नादानी के लिए मुझे क्षमा करें और अब मुझे पानी पिला दें माँ।’ इतना कहकर कालिदास जी ने उपर देखा तो पाया कि वहाँ उस वृद्धा की जगह साक्षात् माँ सरस्वती खड़ी है।
माँ सरस्वती का सुन्दर उज्ज्वल स्वरूप देख उन्हें लगा; कहीं यह सब स्वप्न तो नहीं! तभी माँ सरस्वती मुस्कुराई और अपनी स्नेहिल शांतिदायक आवाज़ में बोली, ‘हे कालिदास! उठो वत्स। तुम अवश्य ही एक महान विद्वान हो। तुम्हारे शब्दों में पढ़ने वाले के जीवन का रूपांतरण करने वाली ऊर्जा है, परंतु अपनी क्षमता पर तुम्हारा अहंकार इन सभी उपलब्धियों का मूल्य घटा देता है। तुम शिक्षित अवश्य हो लेकिन तुमने अहंकार को भी अपने मन में घर करने दिया है। अतः मुझे स्वयं ही तुम्हारा मार्गदर्शन करने आना पड़ा।’ इतना कहकर माँ सरस्वती ने जल का घड़ा कालिदास जी को दिया और स्वयं अंतर्ध्यान हो गई।
दोस्तों, एक सच्चे विद्वान की पहचान उसका ज्ञान नहीं बल्कि उसकी विनम्रता होती है। यदि आपकी शिक्षा केवल आपके अहं को बढ़ावा देती है, तो वह शिक्षा निरर्थक है और यह जीवन व्यर्थ है। जी हाँ दोस्तों, अगर आप प्रगाढ़ ज्ञानी हो, तो आपको यह समझना होगा कि हमारी उपलब्धियाँ गर्व या घमंड करने के लिए है ही नहीं। वह तो सिर्फ़ और सीखने की प्रेरणा भर है जिससे आप अपने अंदर हमेशा सीखते रहने की लालसा पैदा कर पाएँ; जीवन भर एक शिक्षार्थी याने शिष्य बने रहें।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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