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कथनी और करनी के अंतर को दूर कर बच्चों को सिखाएँ सही बातें…

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Jan 15, 2023

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

आईए, आज के लेख की शुरुआत हम स्वामी विवेकानंद जी के जीवन से लिए गए उन दो क़िस्सों से करते हैं, जिसे ज़्यादातर विद्यालयों में इस 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मानते वक्त सुनाया गया था।


पहला क़िस्सा - बात उन दिनों की है जब स्वामी विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस जी से शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। एक दिन परमहंस जी ने अपने शिष्यों को गृहकार्य देते हुए कहा वे सभी अपने घर से थोड़े चावल ले कर आए, बस शर्त इतनी है कि उन्हें चावल लेते हुए कोई ना देखे। एक हफ़्ते बाद सभी शिष्य कक्षा में चावल लेकर आए, सिवाए एक लड़के नरेंद्रनाथ के। उसे ख़ाली हाथ देख बाक़ी सभी लड़के खुश थे क्योंकि आज उन्हें पहली बार किसी कार्य में उसे हराने का मौका मिला था। कुछ देर पश्चात गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र से ख़ाली हाथ आने का कारण पूछा। छात्र नरेंद्र ने गुरु को प्रणाम करते हुए कहा, ‘गुरुजी, मैंने सबसे छुपकर चावल चोरी करने का कई बार प्रयास किया, लेकिन हर बार मुझे महसूस हुआ कि मैं स्वयं खुद को हर बार चावल चोरी करते हुए देख रहा हूँ। इसलिए ऐसी स्थिति कभी बनी ही नहीं जब चावल लेते वक्त मुझे कोई देखे ही ना…’


दूसरा क़िस्सा - अन्य बच्चों की ही तरह स्वामी विवेकानंद एक दिन कक्षा में अपने अन्य साथियों से बात कर रहे थे। इस बातचीत में वे इतने मगन थे कि उन्हें एहसास ही नहीं हुआ कि कब रिसेस पूर्ण हो गई और कक्षा में शिक्षक ने आकर अपना विषय पढ़ाना शुरू कर दिया। शिक्षक को जब कक्षा में बच्चों की फुसफुसाहट ज़्यादा लगी तो वे नाराज़ हो गए और उन्होंने सभी बच्चों से पूछा कि कौन-कौन बात कर रहा था। शिक्षकों ने तुरंत नरेंद्र की ओर इशारा कर दिया। शिक्षक को विश्वास नहीं हुआ क्योंकि नरेंद्र सामान्यतः अपने पूरे फ़ोकस के साथ पढ़ाई किया करते थे। इसलिए शिक्षक को लगा कि सब छात्र झूठ बोल रहे हैं। इसलिए उन्होंने बच्चों से जो पढ़ाया था, उस विषय में प्रश्न पूछना शुरू कर दिए।


कक्षा में शिक्षक द्वारा पूछे गए सवाल का कोई छात्र सही जवाब नहीं दे पा रहा था, सिवाए नरेंद्र के। शिक्षक ने उन्हें शाबाशी देते हुए बैठने को कहा और पूरी कक्षा को दोषी मान सजा देते हुए खड़े रहने के लिए कहा। शिक्षक के बैठने का कहने के बाद भी नरेंद्र ने बाक़ी बच्चों की ही तरह सजा को स्वीकारा और खड़े हो गए। जब शिक्षक ने उनसे इस विषय में पूछा तो उन्होंने अपनी गलती स्वीकारते हुए तुरंत कहा, ‘गुरु जी बात करने वाले बच्चों में मैं भी शामिल था। इसलिए सजा मुझे भी मिलना चाहिए।’ नरेंद्र का जवाब सुन शिक्षक अवाक थे।


दोस्तों, सामान्यतः छात्रों को ऐसे किस्से सुनाने के पीछे हमारा उद्देश्य बड़ा साधारण सा होता है कि हम बच्चों को जीवन मूल्य सिखा पाएँ, उन्हें जीवन में सही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित कर पाएँ। जैसे उपरोक्त दोनों ही क़िस्सों के माध्यम से हम उन्हें अंतरात्मा की आवाज़ का मूल्य सिखाना चाहते हैं। हम उन्हें बताना चाहते हैं कि इस दुनिया में हम सब से छिप कर, झूठ बोलकर कार्य तो कर सकते हैं। लेकिन अपनी स्वयं की अंतरात्मा को धोखा देना, सम्भव नहीं है। या फिर जीवन में किए गए गलत कार्यों को हम दूसरों से तो छिपा सकते हैं, लेकिन इसे खुद से छिपाना सम्भव नहीं है। इसलिए हमें कभी कोई गलत कार्य नहीं करना चाहिए। साथ ही हम बच्चों को यह भी बताना चाहते हैं कि जीवन में अगर आप चैन की नींद सोना चाहते हैं या फिर सही मूल्य पर सफलता पाकर खुश, शांत और मस्त रहते हुए अपना जीवन जीना चाहते हैं तो जीवन में हर निर्णय अपनी अंतरात्मा की आवाज़ के अनुसार लें।


लेकिन दोस्तों, अक्सर हम सभी ने देखा है कि ऐसी पचासों अच्छी कहानियाँ, किस्से सुनाने के बाद भी बच्चों में जीवन मूल्य कम हो रहे हैं, पता है क्यों? क्योंकि जीवन मूल्य सिखाने वाले हमारे जैसे पालक या शिक्षक गण स्वयं बच्चों के सामने इन मूल्यों का पालन नहीं करते हैं। बच्चा उन्हें कहते कुछ और करते कुछ देखता है। कथनी और करनी का यही फ़र्क़ अक्सर बच्चों को सही बात से दूर कर देता है। इसलिए साथियों अगर आपका लक्ष्य बच्चों को बेहतर इंसान बनाना है तो ऐसे किस्से सुनाने से पहले उनमें छुपी सीखों को अपने अंदर उतारे, अपने जीवन को उन सीखों के अनुसार जिएँ, जिससे बच्चे आपके आचरण को देखते हुए आपके द्वारा सिखाई गई महत्वपूर्ण बातों को अपने अंदर उतार सकें, अपने जीवन और इस दुनिया को बेहतर बना सकें।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com

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