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  • Writer's pictureNirmal Bhatnagar

जीना हो खुलकर तो आज़माएँ यह सूत्र…

Sep 17, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, यक़ीन मानियेगा खुल कर जीवन जीना उतना मुश्किल नहीं है, जितना सामान्यतः हमें लगता है। लेकिन जब आप अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भूलकर, बाहरी चकाचौंध से प्रभावित होकर जीवन की प्राथमिकताओं को बदल लेते हैं, तब आप अपने जीवन को जटिल बनाना शुरू कर देते हैं। अपनी बात को मैं आपको हाल ही में घटी एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ।


कुछ दिन पूर्व एक युवा काउन्सलिंग के लिए मेरे पास आया। शुरुआती सामान्य बातचीत के बाद जब मैंने उससे उसकी समस्या पूछी तो वह बोला, ‘सर, पारिवारिक ज़िम्मेदारी और बदली हुई परिस्थितियों में आमदनी और खर्च का तालमेल बैठाने में परेशानी हो रही है। इसके कारण मैं कर्ज के जाल में फँस गया हूँ और इसी वजह से दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा है। व्यापार में आशा के अनुरूप ग्रोथ नहीं मिल पाने के कारण यह समस्या दिनों-दिन और बढ़ती जा रही है।’


मैंने उसकी बातों के आधार पर कोई भी धारणा बनाने के स्थान पर उसके व्यवसाय प्रबंधन को समझने का निर्णय लिया क्योंकि मुझे उस युवा के शब्दों, उसके व्यवहार और रहन-सहन में बहुत ज़्यादा अंतर नज़र आ रहा था। उदाहरण के लिए उस युवा ने सत्तर हज़ार रुपये प्रति माह का नुक़सान बताया था, लेकिन उसकी जीवनशैली को देखकर इस बात का जरा सा भी आभास नहीं हो रहा था। वो मुझसे मिलने के लिये एक बड़ी एसयूवी कार से आया था, उसके पास एप्पल का आईफ़ोन 15 प्रो था। इसी तरह उसके कपड़े, बैग, पैन आदि सभी काफ़ी महँगे ब्रांड के थे। इसका सीधा-सीधा अर्थ था कि यह युवा भी आज के युवाओं के समान भौतिकवादी मानसिकता का समर्थक था।


उपरोक्त आधार पर लिये अपने निर्णय के अनुसार मैंने जब उस युवा के व्यवसाय का ऑडिट करा तो मैं यह देख हैरान रह गया कि इस प्रतिस्पर्धी बाज़ार में भी वह 30 से 35 प्रतिशत का सकल (ग्रॉस) मुनाफ़ा कमा रहा था। अब मेरे सामने मुख्य प्रश्न था कि फिर उसे इतना नुक़सान क्यों हो रहा है? मैंने जब गहराई से उसके व्यापार का अध्ययन किया तो मुझे समझ आया कि उस युवा की मुख्य परेशानी दिखावा करने की थी। अर्थात् ‘जानते हो मैं कौन हूँ और कितना बड़ा व्यवसाय करता हूँ?’ के दिखावे में वह अपनी हैसियत या यूँ कहूँ आमदनी से ज़्यादा खर्च कर रहा था।


मुख्य समस्या समझ आते ही मैंने उस युवा को सारी स्थिति समझाते हुए कहा, ‘क्या तुम जानते हो कि इस दिखावटी ज़िंदगी में तुम झूठ बोलकर किसको धोखा दे रहे हो?’ वह युवा कुछ कहता उसके पहले ही मैंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘मेरी नज़र में तो तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी अंतरात्मा को ही धोखा दे रहे हो; उसी से ही झूठ बोल रहे हो। अगर तुम वाक़ई अपने जीवन को बेहतर बनाना चाहते हो तो धरातल पर आकर कार्य करो। अपने जीवन की यथास्थिति को स्वीकारते हुए जीयो।’


दोस्तों, सुनने में यह बात साधारण लग सकती है। लेकिन यक़ीन मानियेगा जब हम दूसरों से झूठ बोलते हैं, तब हम सबसे पहले ख़ुद से झूठ बोलते हैं, बस इस बात का एहसास हमें नहीं होता है। झूठ बोलने की शुरुआत ख़ुद के दिमाग़ को ऐसी चीजों के लिए तैयार करके होती है, जो सच नहीं है और इसके लिए हमें ख़ुद को यक़ीन दिलाना होता है कि इस झूठ से अंत में हमें लाभ होगा। इस प्रक्रिया से हम अपनी अंतरात्मा को नुक़सान पहुँचाना शुरू कर देते है। दोस्तों, जब हम झूठ बोलते हैं तब हम अपने भीतर बैठे परमात्मा को झूठ बोलने के लिये मजबूर करते हैं, जो उनके स्वभाव के पूर्णतया विपरीत है। इसलिए हमारे भीतर बैठे परमात्मा हमें ऐसा करने से रोकने की कोशिश करते हैं। लेकिन अपने क्षणिक लाभ के कारण हम उनके विपरीत जाते हैं और इसी वजह से अपराधबोध का शिकार हो जाते हैं। इसलिए दोस्तों, अपने भीतर बैठे परमात्मा को परेशान ना करें और साहस से काम लेते हुए कभी ख़ुद से झूठ ना बोलें।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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