Apr 23, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों हम सभी जानते हैं कि देने में जो सुख है वो किसी और चीज़ में कहाँ। शायद इसीलिए दान को सबसे बड़ा पुण्य माना गया है। लेकिन यह पता होने के बाद भी आप पाएँगे कि लोग पूरे जीवन भर इकट्ठा करने में लगे रहते हैं और इसीलिए असंतोष भरा जीवन जीते हैं। अगर इस विषय में ऐसे लोगों से बात की जाए तो आप पाएँगे कि यह स्वयं को देने में अक्षम इसलिए मानते हैं क्योंकि इनको यह लगता है कि इनके पास जो भी है, वह इनकी स्वयं की ज़रूरत से काफ़ी कम है। जबकि असल स्थिति इससे एकदम अलग या इतर होती है। आगे बढ़ने से पहले, अपनी बात को मैं आपको एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ।
बात कई साल पुरानी है, तीन दोस्त प्रसाद पाने के उद्देश्य से एक भंडारे में गए। वहाँ लोगों की आस्था, उनका समर्पण, उनका भाव देख तीनों में से एक दोस्त बोला, ‘यहाँ का माहौल कितना सुखद है। हर व्यक्ति पूर्ण समर्पण के साथ दिल से देने का प्रयास कर रहा है। काश… हम भी ऐसा भंडारा कर पाते।’ पहले मित्र की बात सुनते ही दूसरा मित्र बोला, ‘मित्र बात तो तुम बिलकुल सही कह रहे हो। देने में जो मज़ा है वह किसी और कार्य में कहाँ।' पर ईश्वर ने हमें इतना सक्षम ही कहाँ बनाया है कि हम किसी को कुछ दे पाएँ। तुम खुद सोच कर देखो रोज़ हमारे तीनों के ही खाने के लाले पड़े रहते हैं, ऐसे में किसी और को कुछ दे पाने के बारे में सोचना भी सम्भव नहीं है।’ तीसरा दोस्त, जो अभी तक एकदम शांति के साथ दोनों दोस्तों की बात सुन रहा था, थोड़े बेचैनी भरे स्वर में बोला, ‘बात तो तुम दोनों की एकदम सही है। मैं खुद भी अक्सर इस विषय में सोचा करता हूँ। लेकिन सैलरी आने के पहले जाने का रास्ता बनाकर आती है। खर्चे ही इतने होते हैं की क्या बताऊँ, हमारे लिए तो भंडारा करना, दूसरों की दान देकर मदद करना सपने से अधिक कुछ नहीं है।’
जहाँ यह तीनों दोस्त भंडारे का प्रसाद ले रहे थे, वहीं समीप में एक महात्मा भी भंडारे में बैठे हुए थे। वे तीनों दोस्तों की बात सुन मुस्कुराए और बोले, ‘बेटा मेरी नज़र मैं तो तुम तीनों आज ही भंडारा कर सकते हो क्योंकि भंडारे के लिए धन की नहीं अपितु सिर्फ़ अच्छे मन की ज़रूरत होती है।’ महात्मा की बात सुन तीनों दोस्त आश्चर्यचकित रह गए। वे विस्मय के साथ महात्मा की ओर देखते हुए बोले, ‘गुरुदेव, हम आपकी बात को समझ नहीं पाए !' कृपया विस्तार से बताने का प्रयास करें। महात्मा मुस्कुराए और बोले, ‘वत्स, इस दुनिया में इंसान के रूप में जन्म मिलना ही अपने आप में सौभाग्य की बात है। 84 लाख योनियों में मनुष्य योनि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है क्योंकि सिर्फ़ हम ही हैं जो अपनी इच्छा के अनुसार खाते हैं, अपनी इच्छा के अनुसार पहनते है, अपनी इच्छा के अनुसार रहते हैं। ऐसे में हमारा नैतिक दायित्व है कि हम अन्य जीव-जंतुओं का ख़याल रखें, उनके लिए भोजन-पानी या सुरक्षित वातावरण का निर्माण करें। इसलिए मेरा सुझाव है कि तुम एक मुट्ठी अनाज या आटे से कीड़े-मकोड़े या छोटे जीव-जंतुओं के लिए भंडारा करो।’
बात तो संत की एकदम सही है दोस्तों। अक्सर हम सोचते हैं कि जब बड़े और सक्षम बनेंगे, तब सेवा कार्य करेंगे। लेकिन ऐसा सोचते समय हम यह भूल जाते हैं कि इस दुनिया में लाखों-करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जो आपके जैसा जीवन जीने के लिए तरस रहे हैं। आप ऐसे लोगों को सही दिशा दिखाकर, थोड़ा सा ज्ञान साझा करके और कुछ नहीं तो सिर्फ़ एक मुस्कुराहट देकर मदद कर सकते हैं। जी हाँ साथियों, प्रतिदिन हमें ईश्वर किसी ना किसी रूप में कई लोगों की मदद करने का अवसर देता है लेकिन अक्सर हम सही और संतुलित मन ना हो पाने के कारण उन अवसरों को पहचान नहीं पाते हैं। याद रखिएगा साथियों, बड़े होने के बाद मदद करना एक विचार से अधिक कुछ नहीं है। लेकिन मदद करके बड़े बन जाना कुदरत का नियम है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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