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परोपकार - सफलता की कुंजी !!!

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Sep 4, 2022

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, अक्सर मुझे लगता है, शिक्षा के स्वरूप को प्रतियोगी बनाकर हमने उसके मूल उद्देश्य को ही खो दिया है। अगर आप मेरी बात से सहमत ना हो तो एक बार गहराई से हमारी आज की शिक्षण व्यवस्था को देख लें। आज हम साल भर तक बच्चे के दिमाग़ में पहले से तय चीज़ें घुसाने का प्रयास करते हैं और अगर किसी भी वजह से इसमें सफलता ना मिल पाए तो हम मुँह के रास्ते उन बातों को घुसा देते हैं। अर्थात् उसे पूरे पाठ को रटा देते हैं और तय दिन, तय समय पर, तय समय में बच्चे को काग़ज़ पर उल्टी करने के लिए कहते हैं। उल्टी अच्छी हो गई और आप अच्छे नम्बर ले आए तो आप बुद्धिमान हैं और अगर किसी वजह से उल्टी अच्छी नहीं हुई तो आपको भीड़ का हिस्सा मान लिया जाएगा।


जी हाँ दोस्तों, आज हम बच्चों को समझदार, व्यवहारिक या सामाजिक रूप से बेहतर इंसान बनने के लिए पढ़ाई नहीं करवाते बल्कि हम तो बस इतना चाहते हैं कि वे अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होकर, प्रतियोगिता में बने रहकर अच्छा कैरियर बना सकें, बहुत सारा पैसा कमा सकें। बच्चों को उपरोक्त तरीके से शिक्षित कर, सफल बनाने के इस प्रयास में ‘मैं’ और ‘मेरा’ इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि जीवन का उद्देश्य ही इसके आस-पास आकर सिमट गया है।


इसके ठीक विपरीत अगर आप भारतीय पुरातन शिक्षा पद्धति देखेंगे आप पाएँगे कि उसमें सामाजिक हित को सर्वोपरि स्थान दिया जाता था। इसे मैं आपको एक उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूँ। बहुत साल पहले एक विख्यात गुरुकुल में गुरु ने जीवन का महत्वपूर्ण पाठ सिखाने के लिए सभी विद्यार्थियों को खेल मैदान में एकत्र होने का कहा।


गुरु का आदेश सुनते ही सभी शिष्य उसी पल मैदान में एकत्र हो गए। गुरु ने अपने शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘प्रिय शिष्यों, आज इस गुरुकुल में शिक्षा लेने का आप सभी का अंतिम दिन है। मैं चाहता हूँ कि यहाँ से जाने के पूर्व आप सभी लोग एक बाधा दौड़ में हिस्सा लें, जिसमें आपको कहीं पहाड़ी चढ़ना होगा, तो कहीं पानी से निकालना होगा, तो कहीं आपको कूदना भी पड़ सकता है। लेकिन इस रेस के आख़री हिस्से में आपको एक अंधेरी सुरंग से निकलकर मेरे पास आना होगा। तो क्या आप सब इस रेस के लिए तैयार हैं?’


सभी शिष्यों से एक स्वर में ‘हाँ’ में उत्तर मिलते ही गुरु ने इशारा किया और रेस शुरू हो गई। सभी शिष्य तेज़ी से भागने लगे और बाधाओं को पार करते हुए सुरंग तक पहुँच गए। सुरंग में घुसते ही सभी शिष्यों को घुप्प अंधेरा एवं जगह-जगह नुकीले पत्थर होने के कारण दिक़्क़त होने लगी। नुकीले पत्थर चुभने के कारण हुई असहनीय पीड़ा के कारण अभी तक सामान्य व्यवहार करने वाले शिष्यों के व्यवहार में अंतर आने लगा। ख़ैर किसी तरह सभी शिष्य रेस खत्म कर गुरु तक पहुंचे।


गुरु ने शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘वत्स मैं देख रहा था तुम में से कुछ लोगों ने काफ़ी जल्दी, तो कुछ ने काफ़ी समय लेकर रेस पूरी करी। आख़िर तुम लोगों के समय में इतना अंतर क्यों आया?’ गुरु का प्रश्न सुन देर से पहुँचने वाला एक शिष्य गुरु को प्रणाम करता हुआ बोला, ‘गुरुजी, शुरू में तो सब ठीक था लेकिन अंधेरी सुरंग से निकलते समय नुकीले पत्थरों के चुभने से हमें असहनीय पीड़ा हुई। हमारे पीछे आने वाले साथियों को इस दिक़्क़त या पीड़ा का सामना ना करना पड़े इसलिए मैं और मेरे कुछ साथी रेस छोड़, अंधेरी सुरंग में से नुकीले पत्थर ढूँढ कर हटाने में लग गए, इसीलिए आप तक पहुँचने में थोड़ा ज़्यादा वक्त लग गया।’


शिष्य की बात सुन गुरु ने मुस्कुराते हुए उसे राह में बीने गए नुकीले पत्थर दिखाने के लिए कहा। शिष्य ने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए अपनी जेब में से सारे पत्थर निकाल कर गुरुजी के सामने रख दिए। लेकिन यह क्या, शिष्य अभी तक जिन्हें नुकीले पत्थर समझ रहे थे वे तो बहुमूल्य हीरे थे। सभी शिष्य हैरत के साथ गुरु की ओर देखने लगे। गुरु ने उसी मुस्कुराहट के साथ कहा, ‘मैं जानता हूँ आप सभी हीरों को देख आश्चर्यचकित हैं, दरअसल इन हीरों को मैंने ही अंधेरी सुरंग में डाला था। जिन भी शिष्यों ने दूसरों की तकलीफ़ के विषय में सोचकर इन्हें सुरंग से हटाया था, उन सभी को यह हीरे मेरी ओर से इनाम है। असल में यह दौड़ हमारे जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव, भागम-भाग को दर्शाती है। जहाँ हर इंसान कुछ ना कुछ पाने के लिए दौड़ रहा है। पर इस दौड़ का अंतिम विजेता वही बन पाता है जो इस रोज़-रोज़ की भागम-भाग में लोगों का भला करने से नहीं चूकता।’


दोस्तों इस कहानी के माध्यम से मैं आपको सिर्फ़ एक महत्वपूर्ण बात कहना चाहता हूँ। जीवन में दी जाने वाली शिक्षा तब तक अधूरी है, जब तक वह बच्चों को परोपकार ना सिखाती हो। इसलिए हमेशा इस बात को गाँठ बाँध कर रखिए कि जीवन में तमाम प्रयासों के बाद भी बनाई गई सफलता की इमारत तब तक अधूरी ही रहेगी, जब तक उसमें परोपकार की ईंटें ना लगाई जाए। जी हाँ साथियों, जीवन में आप सही मायने में सफल तभी होते हैं, जब आप कई लोगों को सफल बना पाते हैं, लोगों के जीवन को बेहतर बनाते हैं। याद रखिएगा आपके जीवन की अनमोल पूँजी परोपकार के उद्देश्य से किया गया कार्य ही है।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com


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