June 30, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, बात वर्ष 2004 की है जब मैं कुछ मित्रों के साथ बाबा अमरनाथ के दर्शन के साथ-साथ कश्मीर घूमने के लिए गया था। चूँकि उस दौर में कश्मीर आतंकवाद से जूझ रहा था, इसलिए हमें जम्मू के बेस कैम्प में लगभग ढाई दिन अतिरिक्त रुकना पड़ा। इस दौरान उस कैम्प में काफ़ी ज्यादा भीड़ इकट्ठा हो गई थी। इसलिए तीसरे दिन जब यात्रा शुरू हुई तो हमें हर पड़ाव पर अत्यधिक भीड़ का सामना करना पड़ा। इस समस्या का अंदाज़ा आप इस स्थिति से और बेहतर तरीक़े से लगा सकते हैं कि दो पड़ावों पर 4 लोगों के रुकने लायक़ टेंट में हमें 6-8 लोगों को रुकना पड़ा। ख़ैर बाबा बर्फ़ानी के दर्शन के बाद यह सारी समस्यायें काफ़ी गौण हो गई।
दर्शन पूर्ण कर हमने बालटाल के रास्ते उतरने का निर्णय लिया, जिससे हम भारत का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर के उस हिस्से को घूम सकें; उसकी प्राकृतिक सुंदरता को निहार सकें। कठिन माने जाने वाले इस रास्ते पर हमने ट्रैकिंग करने का निर्णय लिया और एक पहाड़ी पर चढ़ गए। लेकिन पहाड़ी पर चढ़ने के बाद भी हम इसका लुत्फ़ नहीं उठा पाए क्योंकि वहाँ अत्यधिक भीड़ थी। अर्थात् पहाड़ी की चोटी पर भी हमें शहर की भीड़भाड़ वाला नजारा ही दिख रहा था। जब मित्र ने मुझसे इस विषय में कहा कि ‘निर्मल, यहाँ तो इतने अधिक लोग हैं कि ऐसा लग रहा है, मानो हम अपने शहर में ही हैं।’ मैंने उसे समझाते हुए कहा, ‘यार, यहाँ तक पहुँचने के बाद अफ़सोस करने से कोई फ़ायदा नहीं है। सच्चाई को स्वीकारो और मौज करो।’
मेरी इस बात ने मित्र पर जादू सा कर दिया था। कुछ देर वहाँ गुजरने के बाद मैंने सभी मित्रों को एक दूसरी, थोड़ी ज़्यादा ऊँची और दुर्गम रास्तों वाली पहाड़ी के बारे में बताया, जिस पर चढ़ना, ख़तरों से भरा माना जाता था और उसपर बहुत कम लोग ट्रैकिंग करने ज़ाया करते थे। एक मित्र को छोड़कर बाक़ी सभी मित्र मेरी इस योजना का विरोध करने लगे क्योंकि सबका मानना था कि ‘अनावश्यक रूप से जोखिम क्यों लेना।’ लेकिन जब हम दोनों नहीं माने, तो उन सभी ने हमें रोकना-टोकना शुरू कर दिया।
ख़ैर मैंने और मेरे एक मित्र ने उनकी बातों को नज़रंदाज़ करा और लोकल उपलब्ध सहायता के साथ उस पहाड़ी के शिखर पर चढ़ने का निर्णय लिया और ट्रैकिंग पर निकल गये। कुछ घंटों की मेहनत के बाद हम उस पहाड़ी के शिखर पर थे और इस यात्रा में पहली बार कश्मीर की अनछुई सुन्दरता का आनंद ले रहे थे। अनछुई इसलिए क्योंकि डर के मारे वहाँ तक अभी भीड़ नहीं पहुँची थी। चुनिंदा लोगों के साथ वहाँ एक अच्छा समय बिताने के बाद हम वहाँ से लौट आए।
दोस्तों, आज इस घटना को याद करता हूँ तो मुझे इसमें सफलता का सूत्र छुपा हुआ नज़र आता है। अगर हम रोकने-टोकने वाले लोगों की बातों में आकर, अनजाने डर से डर जाते और अपनी क्षमताओं पर विश्वास नहीं करते; बिना प्रयास करे भीड़ के साथ ही रुक जाते तो क्या हम प्रकृति की अनछुई सुन्दरता का आनंद ले पाते? क़तई नहीं दोस्तों! ऐसा ही कुछ सफलता के विषय में भी होता है।
जी हाँ दोस्तों, सफल होना इतना मुश्किल नहीं होता है, जितना सामान्यतः लोग बताते हैं। मेरी नज़र में अगर इंसान अपनी क्षमताओं पर विश्वास करते हुए सजगता के साथ एक-एक कदम हर दिन आगे बढ़ता रहे; मेहनत करता रहे तो निश्चित तौर पर सफल हो सकता है। इस दुनिया में रोकने-टोकने वाले लोग सिर्फ़ इसलिए सफल नहीं हो पाते हैं क्योंकि वे अपने जीवन में रिस्क नहीं ले पाते हैं; डर के मारे ज़रा सा भी ख़तरा नहीं उठा पाते हैं और इसीलिए वे जो उन्हें आसानी से मिल जाता है, उसी में खुश हो जाते हैं। वे हमेशा जो पास में है उसे बचाने के विषय में सोचते हैं वे इस बात पर ध्यान ही नहीं देते कि उनके अन्दर इससे कहीं ज्यादा पाने की क्षमता है। जी हाँ दोस्तों, अगर वे अगला लक्ष्य पाने के लिए जरा सी कोशिश करते; थोड़ा सा साहस दिखाते, तो भीड़ का हिस्सा बनने से बच जाते और अपने सपनों का जीवन जीते।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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