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शिक्षा का उद्देश्य समाज को तोड़ना नहीं, जोड़ना है…

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Aug 31, 2022

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, अक्सर आपने जापानी लोगों के विषय में अपने सुना होगा की वे अपने देश से बहुत ज़्यादा प्रेम करते हैं। उनके लिए खुद की सफलता या तरक़्क़ी से ज़्यादा देश की तरक़्क़ी मायने रखती है। वे कितने देशभक्त होते हैं इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं की द्वितीय विश्वयुद्ध में परमाणु हमले अथवा परमाणु बिजली संयंत्र की ख़राबी की वजह से फैली घातक विकिरणों के बीच भी, सिर्फ़ इसलिए लगातार काम करते रहे क्यूँकि वे अपने देशवासियों को गम्भीर ख़तरों से बचाना चाहते थे। इतना ही नहीं प्रतिवर्ष साल के दिनों से ज़्यादा भूकम्प झेलने के बाद भी जापान में जीवन सामान्य गति से चलता रहता है।


दोस्तों, जापानी कल्चर को जानने, समझने का जब-जब मैंने प्रयास किया है, उसे और गहराई से जानने की मेरी इच्छा बढ़ती गई है। इसके पीछे मुझे मुख्यतः 2 कारण नज़र आते हैं। पहला, अपने कल्चर अर्थात् जीवन मूल्यों, धारणाओं, भाषा, सामाजिक ढाँचे, संस्कृति आदि को तमाम परेशानियों, विपरीत परिस्थितियों और विकास के बीच भी अक्षुण बनाए रखना और दूसरा, शिक्षा में ‘मैं’ के स्थान पर ‘हम’ पर जोर देना। उदाहरण के लिए जापानी विद्यालय में अपनी कक्षा से लेकर टॉयलेट तक, तो दूसरी ओर कार्यालय से लेकर कॉमन एरिया तक, अर्थात् पूरे विद्यालय की साफ़-सफ़ाई का ज़िम्मा बच्चों का होता है। यह कार्य उन बच्चों में राष्ट्रीय सम्पत्ति के प्रति ज़िम्मेदारी का भाव पैदा करता है।

इसी तरह जापानी विद्यालय पाश्चात्य संस्कृति, भाषा या किसी भी अन्य बात को सिखाने के लिए अपनी संस्कृति, भाषा या मूल्यों से समझौता नहीं करते हैं। यह तभी सम्भव हो सकता है जब शिक्षा का उद्देश्य जानकारियाँ एकत्र करवाने से ज़्यादा एक समान राष्ट्रीय चरित्र निर्माण करना हो। अर्थात् बच्चों को शुरुआती शिक्षा से ही राष्ट्रीय और जीवन मूल्यों के पाठ को इस तरह पढ़ाना की वो उनके चरित्र का हिस्सा बन जाए। अपनी बात को मैं आपको खेल के एक उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूँ-


दोस्तों आपने कभी ना कभी तो म्यूज़िकल चेयर रेस के खेल को खेला ही होगा। इसमें हम जितने भी लोग होते हैं उससे एक कम चेयर लगाते हैं। इसके बाद म्यूज़िक शुरू कर दिया जाता है और सभी लोग उन कुर्सियों के आस-पास घूमने लगते हैं। म्यूज़िक के रुकते ही हर व्यक्ति कुर्सी पर अपना क़ब्ज़ा जमाने का प्रयास करता है। लेकिन कुर्सी की संख्या खिलाड़ियों की संख्या से कम होने के कारण अंत में कोई एक ऐसा व्यक्ति बचता है जिसे कुर्सी नहीं मिल पाती है। वह व्यक्ति इस खेल से बाहर हो जाता है। यही क्रम तब तक दोहराया जाता रहता है जब तक अंत में एक व्यक्ति ना बच जाए और कुर्सी पर बैठे इसी अंतिम व्यक्ति को इस खेल का विजेता घोषित कर दिया जाता है। अगर बारीकी से देखा जाए तो हम इस खेल के माध्यम से बच्चे को सिखा रहे हैं की विजेता या सफल बनने के लिए तुम्हें दूसरे को हटाना पड़ेगा या हर बार पहले नम्बर पर आना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहूँ तो, ‘मुझे दूसरों को हराकर विजेता बनना होगा!’, की संस्कृति सिखाता है।


इसके विपरीत जापान में इसी खेल से प्ले स्कूलों में ही विजेता को ‘सबको साथ लेकर चलने का’, पाठ सिखाया जाता है। अब आप सोच रहे होंगे, ‘कैसे?’ तो चलिए म्यूज़िकल चेयर रेस खेलने का जापानी तरीक़ा भी समझ लेते हैं। जापान में भी खेलने वालों की संख्या के मुक़ाबले एक कुर्सी कम रख कर खेला जाता है लेकिन इसमें म्यूज़िक रुकने पर बच्चों को सुनिश्चित करना होता है की कोई भी प्रतिभागी बैठने से वंचित ना रह जाए। अर्थात् अगर कोई भी बच्चा खड़ा रह जाए तो बचे हुए सभी प्रतिभागी खेल से बाहर माने जाएँगे। इसलिए स्वयं को खेल में बनाए रखने के लिए प्रत्येक प्रतिभागी को खुद बैठने के साथ-साथ, अपने साथियों का बैठना भी सुनिश्चित करना होता है। फिर चाहे उन्हें एक-दूसरे के गले में हाथ डाल कर, बैलेंस करते हुए बीच में बैठाना पड़े या फिर अपनी कुर्सी दूसरे के साथ साझा करना पड़े। जो बच्चा सबसे ज़्यादा बच्चों को अपने साथ बैठा पाता था, वह इस खेल का विजेता होता था।


दोस्तों, ऐसा नहीं है की हमारी शिक्षण प्रणाली अच्छी नहीं है या मैं उसका सम्मान नहीं करता हूँ। उपरोक्त उदाहरण के माध्यम से मैं आप सभी को बस इतना बताना चाहता हूँ की बच्चों को शिक्षित बनाने का अर्थ उन्हें विश्वकोश अर्थात् एन्साइक्लोपीडिया या जानकारी याद रखने की मशीन बनाना नहीं है। बल्कि इसका सही अर्थ तो उनके चरित्र को बेहतर बनाकर, उन्हें इंसानियत या मानवता की सेवा करने लायक़ बनाना है, जिससे वे देश के ज़िम्मेदार नागरिक बन सकें और सफलता की अपनी यात्रा पूरी करते-करते कई लोगों को सफल बना सकें।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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