Dec 22, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
आइए दोस्तों, आज के लेख की शुरुआत एक पौराणिक कहानी से करते हैं। बात पुरातन काल की है, एक बार नारद जी के मन में यह पता करने की इच्छा जागृत हुई या यूँ कहूँ कि यह जानने की धुन सवार हुई कि इस ब्रह्मांड में सबसे बड़ा और महान कौन? अपनी ओर से काफ़ी प्रयास करने के बाद भी वे जब इस सवाल का जवाब नहीं तलाश पाये तो उन्होंने भगवान विष्णु से मदद लेने का निश्चय किया और उनके सामने अपनी जिज्ञासा प्रकट कर दी। नारद जी का प्रश्न सुन भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे और बोले, ‘नारद जी, मुझे लगता है सब कुछ इस पृथ्वी पर टिका है, इसलिए मुझे लगता है, शायद पृथ्वी सबसे बड़ी है। लेकिन नारद जी अभी भी मेरे मन में एक शंका है।
सोच कर देखिए जब भगवान स्वयं अपने जवाब पर शंका करें, तो प्रश्न पूछने वाले की स्थिति क्या होगी? नारद जी का मन अब और ज़्यादा अशांत हो गया। उन्होंने उसी पल भगवान विष्णु से अगला प्रश्न किया, ‘प्रभु, अगर आप ख़ुद संशय में हैं तो फिर यह विषय वाक़ई गंभीर है।’ अभी नारद जी आगे कुछ और कहते उससे पहले ही भगवान विष्णु अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘नारद जी, इस पृथ्वी को चारों ओर से समुद्र ने घेर रखा है, इसलिए हम समुद्र को सबसे बड़ा मान सकते हैं। लेकिन इसमें भी मुझे शंका है क्योंकि अगस्त्य मुनि ने पूरे समुद्र को पी लिया था। इसलिए लगता है अगस्त्य मुनि सबसे बड़े हैं।’
नारद मुनि भगवान विष्णु की बात मानने ही वाले थे कि भगवान विष्णु ने नई बात कह दी। लेकिन नारद जी हमें एक बात पर और विचार करना चाहिये कि अगस्त्य मुनि रहते कहाँ हैं? आकाश मंडल में एक सुई की नोक बराबर स्थान पर वे जुगनू की तरह दिखते हैं। फिर वे बड़े कैसे हुए? बड़ा तो आकाश है।’ नारद जी बोले, ‘हाँ प्रभु, बात तो आप सही कह रहे हैं। आकाश के सामने अगस्त्य ऋषि का तो अस्तित्व ही विलीन हो जाता है। आकाश ने ही तो सारी सृष्टि को घेर आच्छादित कर रखा है। आकाश ही श्रेष्ठ और सबसे बड़ा है।’ भगवान विष्णु जी ने नारद जी को थोड़ा और भ्रमित करने की सोची। वे अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘नारद जी, आप भूल रहे हैं कि वामन अवतार के रूप में इस आकाश को एक ही पग में ही नाप लिया था मैंने।’ इतना सुनते ही नारद जी ने भगवान विष्णु के पैर पकड़ लिए और बोले, ‘प्रभु, वाक़ई मैं भूल गया था कि सोलह कलाओं को धारण कर आपने वामन स्वरूप धरा था। इसलिए अब यह तो निश्चित हो गया कि आप ही सबसे बड़े हुए।’
भगवान विष्णु नारद जी की बात को आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘नारद, मैं विराट स्वरूप धारण करने के उपरांत भी अपने भक्तों के छोटे से हृदय में विराजमान हूँ और मैं वहीं निवास करता हूँ। जो स्थान मुझे समाहित कर ले वही सबसे बड़ा हुआ ना? इसलिए सर्वोपरि और सबसे महान तो मेरे वे भक्त हैं जो शुद्ध हृदय से मेरी उपासना करके मुझे अपने हृदय में धारण कर लेते हैं। उनसे विस्तृत और कौन हो सकता है?, तुम भी मेरे सच्चे भक्त हो इसलिए वास्तव में तुम सबसे बड़े और महान हो।
भगवान विष्णु की बात सुन नारद जी के नेत्र भर आए। उन्हें संसार को अपने इशारों पर नचाने वाले भगवान के हृदय की विशालता को देखकर आनंद आ रहा था और ख़ुद की बुद्धि पर तरस। नारद जी अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए बोले, ‘प्रभु संसार को धारण करने वाले आप, स्वयं खुद को भक्तों से छोटा मानते हैं और भक्तगण छोटे-बड़े का भेद करने में लगे रहते हैं। मुझे अपनी अज्ञानता पर दुख है। मैं आगे से कभी भी छोटे-बड़े के फेर में नहीं पड़ूंगा।’
बात दोस्तों सांकेतिक रूप से कहीं गई है लेकिन है वाक़ई महत्वपूर्ण। जिस तरह भक्त भगवान से बड़ा है ठीक वैसे ही शिक्षा के क्षेत्र में सीखने वाला सिखाने वाले से बड़ा है। दान के विषय में दान स्वीकारने वाला दान करने वाले से बड़ा है। दूसरी बात जो यह कथा हमें सिखाती है, भगवान, हमेशा भक्त के वश में रहते हैं। बस भक्त निष्काम भक्ति वाला होना चाहिए। इसीलिए दोस्तों, हमेशा ‘तेरा तुझको अर्पण’ वाले भाव में रहना ही लाभप्रद है। सिर्फ़ यही भाव त्रिलोक के स्वामी को आपके पास आने के लिए लालायित रख सकता है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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