Jan 30, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
एक गाँव में काफ़ी देर से एक समस्या के निराकरण के लिए मंत्रणा चल रही थी। उद्देश्य था रात के समय पसरे गहरे अंधेरे को किस तरह गाँव से निकाल बाहर फेंक दिया जाए। सभी लोग अपने-अपने विचार रख रहे थे और हर विचार के समर्थन या विरोध में अन्य गाँववासी अपने तर्क, अपने मत रख रहे थे। हालाँकि कई घंटों की कड़ी मेहनत बेकार ही लग रही थी क्योंकि मंत्रणा किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पा रही थी। इतने में एक बुजुर्ग व्यक्ति खड़ा हुआ और उसने मंत्रणा वाले कमरे में मोमबत्ती जला दी और अन्य गाँव वालों से प्रश्न किया, ‘बताओ, अंधेरा कहाँ है जिसे गाँव के बाहर फेंकना है?’ सभी गाँववासी चुप थे, कुछ पल चुप रहने के बाद बुजुर्ग व्यक्ति बड़ी गम्भीरता से बोले, ‘साथियों हमें मंत्रणा इस पर नहीं करना चाहिए कि किस तरह हम गाँव से अंधेरे को बाहर फेंके अपितु इस विषय पर करना चाहिए कि उजाला कैसे फैलाया जाए?, जिससे अंधेरे को कहीं आने का स्थान ही ना मिले।’
बात तो एकदम सीधी, सरल और स्पष्ट है और साथ ही हम सब नाटकीय रूप से कही इस बात को हक़ीक़त में जानते हैं। लेकिन हमने इस समझ को केवल शाब्दिक अर्थ तक समझकर ही छोड़ दिया है। जिस तरह मोमबत्ती की रोशनी घने अंधेरे को मिटा सकती है, ठीक उसी तरह ज्ञान की एक लौ हमारे अंदर फैला अज्ञान मिटा सकती है और ठीक इसी तरह एक अच्छा विचार हमारे अंदर के कई बुरे विचारों के द्वन्द को मिटा सकता है। इतना ही नहीं इसी तरह हम मानवीय सम्वेदनाओं की लौ जलाकर रिश्तों या दिलों की दूरी मिटा सकते हैं, अमीर-गरीब की खाई पाट सकते हैं, समाज में फैली अनेक विषमताओं को दूर कर सकते हैं।
जी हाँ साथियों, हमारे सबके अंदर बस एक लौ जलने की देरी है। जैसे ही लौ जलेगी, समाज से अंधेरा ग़ायब होने लगेगा। शायद आपको मेरी बात थोड़ी अतिशयोक्तिपूर्ण लग रही होगी। चलिए मैं आपको इसे एक सच्ची घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ-
बात आज़ादी से पहले की है। एक युवा लड़का ढेरों महत्वकांक्षा, भविष्य के हसीन सपने लिए दक्षिण अफ़्रीका से लॉ की पढ़ाई पूरी कर अपने देश भारत आया। जैसा हर युवा सोचता है, यह युवा भी जल्द से जल्द पद, प्रतिष्ठा पाना चाहता था और इसीलिए भारत आने के बाद तेजी से कार्य करने लगा। उसकी शैली, कार्य के प्रति गम्भीरता, समाज में व्याप्त कुरीतियों को खत्म करने के जज़्बे और आज़ादी के लिए समाज को एकजुट करने के प्रयास को देख जल्द ही उसकी छवि कर्मवीर के रूप में बनने लगी।
एक दिन आज़ादी को लेकर अपना संदेश या विचार फैलाने के उद्देश्य से यह व्यक्ति दक्षिण की यात्रा पर गया। यात्रा के दौरान उनके विचार सुनने, उनसे मिलने के लिए कई लोग उनके पास पहुँचते थे। एक दिन दक्षिण यात्रा के दौरान इस व्यक्ति का ध्यान हाथ में टोकरी उठाए जा रही एक युवा महिला पर गया, जिसने मैली-कुचैली फटी धोती से किसी तरह अपना तन ढका हुआ था। वैसे तो उस धोती की हालात इतनी ख़राब थी कि उसे धोती के स्थान पर फटा, मैला-कुचैला चीथड़ा कहना ज्यादा ठीक होगा।
इस लड़की को भीड़ के रूप में इस व्यक्ति के साथ चल रहे ढेरों लोगों ने देखा। इन सभी की दृष्टि में विरक्ति, उपेक्षा, दया, सहानुभूति, वितृष्णा सभी कुछ था। लेकिन उसे सम्वेदना और समानुभूति के साथ केवल उस यात्रा पर निकले उस युवा ‘बैरिस्टर’ ने देखा। उन्होंने उसे तत्काल पास बुलाया और प्रश्न किया, ‘बहन, तुम इस धोती को सिलकर और धोकर क्यों नहीं पहनती?’ प्रश्न ने उस युवा लड़की के अंतर्मन को अंदर तक कुरेद दिया, उसे अतीत से लेकर वर्तमान तक के सारे ज़ख़्म एक साथ याद दिला दिए। उसने अपने आपको समेटा और गम्भीर स्वर में बोली, ‘कोई दूसरी धोती हो, तब तो धोऊँ इसे और यह सिलने लायक हो, तब कहीं सिलूँ।’
जवाब सुन वह व्यक्ति अवाक था, उनका चेहरा शर्म से लाल पड़ गया। वे सोचने लगे देश में आम जन की हालत इतनी बुरी है और उनके पास ना सिर्फ़ पहना हुआ नया धोती-कुर्ता है, बल्कि वे अपने झोले में एक जोड़ नया साथ लिए घूम रहे हैं। इतना ही नहीं, ना सिर्फ़ लोग बल्कि वे स्वयं भी खुद को जनता का सेवक मानते थे, ऐसे में उनके लिए इससे अधिक शर्मनाक बात और क्या होगी कि उनके समक्ष महिला इस हाल में खड़ी है।’ उन्होंने चुपचाप झोले से धोती निकाली और उस महिला की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘लो बहन, अपने भाई की ओर से इसे स्वीकार करो।’ युवती ने ख़ुशी और कृतज्ञता का भाव चेहरे पर लिए उस भेंट को स्वीकार लिया।
इस घटना से इस युवा के अंदर हमेशा के लिए सम्वेदना की लौ जल गई और उन्होंने उसके बाद से ही एक ही धोती के दो टुकड़े कर आधे को पहनना और आधे को ओढ़ना शुरू कर दिया और उनकी यही पोशाक उनकी चिरस्थायी पहचान बन गई और लोग उन्हें महात्मा मानने लगे। वैसे अब तक आप इस युवा बैरिस्टर या महात्मा को पहचान ही गए होंगे, जी हाँ दोस्तों, आप सही सोच रहे हैं मैं महात्मा गांधी जी के विषय में बात कर रहा था। अब एक प्रश्न मैं आपसे पूछना चाहूँगा, ‘क्या वे कर्मवीर गांधी से महात्मा गांधी सिर्फ़ पोशाक बदलने से बने?’ जी नहीं, सम्वेदना की वजह से हुए आंतरिक उलट-फेर से। इसीलिए मैंने पूर्व में कहा था, ‘सम्वेदना की एक लौ समाज से अंधेरा मिटा सकती है।’
आईए दोस्तों, आज ऐसे महापुरुष की पुण्यतिथि पर उनके जीवन से सम्वेदना के महत्व की सीख लेते हुए उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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