Oct 25, 2022
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
पिछले कुछ दिनों में मुझे ‘दिवाली… दिल वाली…’ मनाने के सुझाव वाले कई मैसेज मिले। लेकिन इस विषय पर मेरा मत कुछ और है। मेरा मानना है कि लोगों के साथ ख़ुशियाँ साझा करना, जरूरतमंदों तक मदद पहुँचाना, समाज को साथ लेकर चलना, कोई साल में एक दिन या सिर्फ़ त्यौहार वाले दिन किया जाने वाला कार्य नहीं है, यह तो हमारी जीवनशैली का हिस्सा होना चाहिए। थोड़ा गहराई से सोच कर देखिएगा, समानुभूति अर्थात् एमपैथी और सहानुभूति अर्थात् सिम्पैथी, कोई एक दिन अपनाने वाला गुण नहीं है बल्कि यह तो हमारे चरित्र का हिस्सा होना चाहिए, तभी तो हम एक ख़ुशहाल समाज का निर्माण कर पाएँगे। लेकिन हाँ, त्यौहार के समय इसे शुरू करने के लिए याद दिलाना, एक अच्छा विचार है।
वैसे मैं आपको कोई नई बात नहीं बता रहा हूँ, हम सभी स्वाभाविक रूप से समाज की बेहतरी के लिए अपना योगदान देना चाहते हैं। लेकिन अपनी प्राथमिकताओं और कई बार संसाधनों की सीमित उपलब्धता की वजह से कर नहीं पाते हैं। लेकिन यक़ीन मानिएगा दोस्तों, अगर आप वाक़ई समाज को कुछ देने का विचार रखते हैं तो आपको संसाधनों की नहीं बल्कि इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है।
उदाहरण के लिए, बिहार के रहने वाले दशरथ माँझी को ही ले लीजिए। इनका जन्म बेहद ही गरीब परिवार में हुआ था और उन्होंने अपने जीवन के शुरुआती वर्ष छोटे-छोटे हक़ों को पाने के लिए बहुत संघर्ष करते हुए बिताए। उनका गाँव गहलोर पर्वत के एक छोर पर था। जहाँ से रोज़मर्रा की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए भी पास के क़स्बे में जाना पड़ता था और यह आसान भी नहीं था क्यूँकि इसके लिए उन्हें पूरा गहलोर पर्वत पार करना पड़ता था। बिना बिजली-पानी के जीवन जीने के आदि इस गाँव के वासियों को सबसे ज़्यादा दिक़्क़त तो तब होती थी जब उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानी होती थी।
एक बार अपनी दैनिक ज़रूरतों की पूर्ति के लिए दशरथ माँझी पहाड़ के दूसरे छोर पर लकड़ियाँ काटने गए। रोज़ की ही तरह उनकी पत्नी फाल्गुनी उस दिन भी पहाड़ी रास्ते से होते हुए खाना देने के लिए निकली। लेकिन पहाड़ी रास्ते में पैर फिसल कर दर्रे में गिर जाने की वजह से उनका निधन हो गया, जिसकी मुख्य वजह समय पर दवाइयाँ और इलाज ना मिल पाना था। यह बात माँझी के मन में घर कर गई और उन्होंने संकल्प ले लिया कि वे अकेले ही अपनी छेनी और हथौड़ी के बल पर पहाड़ को चीर कर बीच में से रास्ता निकालेंगे, जो अत्री व वजी़रगंज की दूरी को कम करेगा।
दशरथ माँझी ने अपने इस प्रण को 22 वर्षों में पूरा किया और वजीरगंज से अत्री की दूरी को 55 किलोमीटर से 15 किलोमीटर कर दिया। दोस्तों, दशरथ माँझी ने परिस्थितियों या प्रशासन पर दोष देने या रोने के स्थान पर अपनी क्षमताओं के आधार पर इस समस्या को जड़ से खत्म करने का निर्णय लिया और उनके पास संसाधन के रूप में सिर्फ़ एक स्पष्ट विचार और दृढ़ इच्छाशक्ति थी।
एक और उदाहरण के रूप में आप गिरोता के सरकारी विद्यालय में चपरासी के रूप में कार्यरत श्री वासुदेव पांचाल जी को ले सकते हैं जो शिक्षकों की कमी की वजह से बच्चों की शिक्षा में हो रहे नुक़सान की वजह से चिंतित थे। वे स्वयं संस्कृत व हिंदी के अच्छे जानकार थे इसलिए उन्होंने इस समस्या के समाधान के रूप में बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया।
ठीक इसी तरह इंदौर के रहने वाले श्री राजेंद सिंह जी को भी देख सकते है। वे भी बिना किसी स्वार्थ के रोज़ पेड़ों या प्रकृति को बचाने के लिए समाज और प्रशासन को जागरूक करते हैं। जैसे पेड़ों को किलों या पेवर ब्लॉक अथवा जालियों के बंधन से मुक्त करवाना आदि।
दोस्तों, अगर आप इनमें से किसी के भी जीवन को गहराई से देखेंगे अर्थात् उनके द्वारा किए जा रहे कार्यों को परखेंगे तो आप पाएँगे कि इन्होंने समाज में व्याप्त परेशानियों को देख किसी को भी दोष देने के स्थान पर, स्वयं के बल पर दूर करने का प्रयास किया और हाँ, उस प्रयास में भी लगने वाले संसाधनों के लिए भी वे किसी पर निर्भर नहीं रहे। सिर्फ़ अपनी इच्छाशक्ति, दृढ़ विचार और मेहनत, जो उनके स्वयं के पास उपलब्ध थी, उसे ही पर्याप्त माना और समाज में सकारात्मक बदलाव लाया। आईए दोस्तों, इस दीपावली हम सब भी इनसे प्रेरणा लेते हैं और समाज में व्याप्त समस्याओं के लिए सिर्फ़ दोष देने या चिल्लाने के स्थान पर अपनी ओर से सकारात्मक योगदान देते हैं। एक बार फिर दीपावली की शुभकामनाओं के साथ…
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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